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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव


कलकत्ते के सारे अख़बार मेरे हाथ में नहीं आते। हाँ, अचानक-अचानक ही कुछेक अख़बार मेरे हाथ लग जाते हैं। वह भी बासी! बंगलादेश का एक कट्टरवादी अखबार, कलकत्ता के 'आजकल' में छपे, अज़ीजुल हक़ के लिखे हुए, एक लेख को पुनर्मुद्रित किया है। आज वह लेख पढ़कर मैं बाकायदा चौंक उठी हूँ। मैंने सुना है कि वह इंसान विप्लवी है। उनके विप्लव का यह हाल है? किसी ज़माने में उन्होंने ढेरों मूर्तियाँ तोड़ी हैं। वर्ग-संघर्ष के नाम पर अनगिनत इंसानों का सिर, धड़ से अलग कर दिया है। आज वे मेरी गर्दन नापने पर आमादा हैं।

बंगलादेश के कट्टरवादी मुझे लगभग हर दिन ही फूहड़ भाषा में गाली गलौज करते हैं। लेकिन वे लोग भी इतनी फूहड़ भाषा इस्तेमाल नहीं करते, इन नक्सल विप्लवी जनाब ने जिस भाषा का प्रयोग किया है। मैंने कलकत्ता में अपने किसी वक्तव्य में यह हरगिज नहीं कहा कि राममोहन, हम-बिस्तर होने के लिए हमेशा पढ़ी-लिखी औरत चाहते थे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और राममोहन के प्रसंग में मैंने अपने निर्वाचित कलाम में जो कुछ भी लिखा है, मेरा ख्याल है कि उन्होंने पढ़ी ही नहीं। उन्नीसवीं सदी में नारी-शिक्षा की सीमाबद्धता के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहती। इस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। उन साहब ने अगर कुछ पढ़ा होता तो उन्हें थोड़ी-बहुत बुद्धि ज़रूर आती और मुझे उम्मीद है कि उन्हें शर्म भी ज़रूर आएगी! मैं पूछती हूँ, नारी-शिक्षा की सीमाबद्धता क्या अभी भी नहीं है? लड़कियों को यह जो लिखाया-पढ़ाया जाता है, नाच-गाना, सिलाई-पुराई, खाना पकाना सिखाया जाता है। असल में किसके लिए? वह क्या किसी अन्य औरत के मंगल के लिए? या मर्द की तृप्ति के लिए? इंसान अब इक्कीसवीं सदी की ओर कदम बढ़ा रहा है। अभी भी पढ़ी-लिखी लड़की को बेड़ियों में जकड़कर रखा जाता है। आज भी मध्यवित्त घरों में रोजगारी औरत के प्रति अनास्था और हिकारत ही दी जाती है।

इन जनाब ने मुझे मर्दो का दुश्मन कहा है। अशिक्षित लोग अक्सर मुझ पर यही दोष लगाने की कोशिश करते हैं। अजीजुल विप्लवी होने के बावजूद ऐसे लोगों की कतार से बाहर नहीं निकल पाए हैं। उन्होंने पुरुष-विद्वेष और पुरुषतंत्र के विरोध को एक करके देखा है। कई-कई निर्बोध पुरुष यह भूल अक्सर कर बैठते हैं!

उन साहब ने कई झूठी बातें भी लिखी हैं। उन्होंने लिखा है-बंगलादेश के कट्टरवादियों ने पिछले छः महीने में कम से कम मौलवियों ने छः सच्चे धर्मद्रोहियों को मौत का फतवा दिया है। उन नामों में शामिल हैं-अनीसुर रहमान, बंगलादेश साहित्य जगत की जननीप्रतिम, बेगम सूफिया कमाल! पहली बात तो यह है कि अनीसुर रहमान नामक कोई लेखक, बंगलादेश में है ही नहीं। दूसरी बात यह है कि इन लोगों के नाम, छः महीने में क्यों, किसी भी दिन भी मौलवी लोगों ने फतवा जारी नहीं किया।

उन्होंने ही लिखा है कि मेरा ख्याल है कि 'भीड़ में औरतों की पिछाड़ी में चिमटी काटना' मर्दो का काम है। गलत बात! ये मर्द सिर्फ चिमटी काटकर ही चैन की साँस नहीं लेते। वक्त और सुविधा मुताबिक, वे लोग औरतों के कई-कई अंगों पर चिमटी काटते हैं। पुरुषतांत्रिक समाज, पुरुषों को ऐसी सब सुविधाएँ उदार हाथों से प्रदान करता रहता है।

उन साहब ने 'औरतों' को आधा आसमान कहा है। आधा आसमान क्या वाकई औरत को नसीब होता है? अगर नसीब होता, तो मुझे ज़रूर कोई आपत्ति नहीं होती। आधा आसमान नहीं, कमरे की खिड़की की राह नज़र आनेवाला टुकड़ा भर आसमान भी औरतों को नहीं मिलता। औरत को अगर आधा आसमान मिला होता, तो प्रायः हर रोज़, मौलवियों के जारी किए हुए फतवों की वजह से औरतों को मरना नहीं पड़ता। मर्द लोग उन पर कंकड़-पत्थर नहीं बरसाते, आग में झोंककर जलाते नहीं। उन लोगों को ज़हर पिलाकर, गले में फाँसी डालकर, यूँ मारते नहीं।

औरत की जुबान पर सेक्स की बातें सुनकर, लोग-बाग आतंकित हो उठते हैं। मर्द पोर्नोग्राफी रचते हैं, औरत के तन-बदन को विज्ञापनों में इस्तेमाल करते हैं और उन सबको पढ़कर या देखकर खुश होते हैं। लेकिन अगर औरत अपने बदन के बारे में कुछ कहती या लिखती है, तो और दस मर्दो की तरह, हमारे ये नक्सल विप्लवी भी आतंकित हो उठते हैं। अपने संस्कारों का स्तर वे आज भी पार नहीं कर पाए, जिन संस्कारों ने उन्हें यह बताना है कि औरत अपनी देह बिछा देंगी, मर्द उनके बदन पर कविताएँ-कहानी लिखेगा, तस्वीरें आँकेगा, कारोबार भी सिर्फ पुरुष ही करेगा। यानी औरत की देह पर सबसे ज्यादा हक उसी का है। बहरहाल, शरीर को लेकर, मर्दो की तरह रस-खेल मैंने नहीं किया। शरीर के बारे में नितांत ज़रूरी बातें और बिल्कुल उचित बातें कहने के लिए ही, मेरी रचनाओं में औरत-मर्द के शरीर की बातें काफी दुविधाहीन तरीके से आई हैं। इसमें कोई जटिलता नहीं! कोई उत्तेजक मामला नहीं है, सेक्सलेसनेस खौफ भी नहीं है।

मुझे धर्म में कतई विश्वास नहीं है! सम्प्रदाय में तो बिल्कुल भी नहीं है। मेरे अधिकांश लेखन में, मेरा वक्तव्य बिल्कुल स्पष्ट है! इसी वजह से ही आज बंगलादेश में मुझे कत्ल करने के लिए मुल्लाओं ने फतवा दे डाला है! ऐसी स्थिति में अजीजुल हक़ के इस वक्तव्य की कि 'तसलीमा उस वक्त मुसलमान औरतों को बी. जे. पी. ज्वाइन करने का उपदेश दे रही थीं' मैं सख्त निंदा करती हूँ! इंसानों में मैं हिंदू-मुसलमान का फर्क नहीं करती। मैंने कभी, कहीं, किसी को उपदेश नहीं दिया; मैंने किसी लड़की या औरत को धार्मिक राजनीति में विश्वास करने को नहीं कहा, बल्कि धर्म के मोह से इंसान को मुक्त करने के लिए मैंने तो अपनी जिंदगी की बाज़ी लगा दी है।

मेरे खिलाफ, ऐसे अप-प्रचार में उतरकर अज़ीजुल हक़ को क्या फायदा हुआ है, मुझे नहीं मालूम! लेकिन, हाँ, इस तरह उनका विप्लवी मुखौटा खिसक गया है और अंदर से उनका सांप्रदायिक चेहरा ज़रूर निकल आया है और इंसान का सिर काटने वाली उनकी धारदार तलवार अँधेरे में भी झिलमिला उठती है, इस बात से शायद वे खुद भी अनजान और बेख़बर हैं।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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